Thursday, September 19, 2019

चर्चा में रहे लोगों से बातचीत पर आधारित साप्ताहिक कार्यक्रम

सेक्शन 375, जो ये कहता है कि किसी भी महिला से किया गया संभोग-- उसकी इच्छा और मर्जी के विरुद्ध/जबरन ली गई मर्जी/ धोखे से ली गई मर्जी/नशे की हालत/झूठा नैरेटिव बताकर ली गई मर्जी/दिमाग़ी रूप से असमर्थ होना-- बलात्कार के अंदर आता है.
जैसे ही कहानी प्रत्यक्ष रूप से सही दिखने वाले सबूत और साथ ही साथ फैक्ट्स के छेड़छाड़ पर आती है. कहानी की दूसरी परत अधखुले आकार में ही सही लेकिन बलात्कार जैसे गंभीर क्राइम में पुलिस के हाथों हुए अस्वीकार्य और संगीन गलतियों की लड़ी हमारे सामने लाकर बिछा देती है.
कोर्ट की कार्यवाही के दौरान जज का ' ब्रोकेन चेन ऑफ कस्टडी.....' पर दंग होकर त्योरियां चढ़ा लेना हमें ये बताने के लिए काफ़ी होता है कि पुलिस प्रशासन की घोर लापरवाही और अफसरों के अंदर बैठी पितृसत्ता किस तरह से किसी भी केस को पलट सकती है.
'त्रिया चरित्र' से नवाज़ी जाने वाली औरत जात पर भरोसा न करना हमारे संस्कारों में है. पुलिसकर्मियों का ढीला रवैया न सिर्फ़ एक दोषी को निर्दोष बना सकता है बल्कि एक मासूम के हाथों में हथकड़ियां भी डाल सकता है.
दूसरे घंटे में थोड़ा चौंकाते हुए फ़िल्म सेक्शन 375 से 376 पर घिसक जाती है. ये हैरान इसलिए भी करता है क्योंकि सिक्के के दूसरे पहलू को सुनने की अपील लिए हुए ये फ़िल्म अपनी राय जस्टिफाई करने के लिए अंत में ओवर सिम्प्लीफाई होती दिखती है. 'हेन्स प्रूव्ड' की जल्दी में कहानी से तर्क कई जगहों पर ग़ायब हुआ, जिससे सच के क़रीब दिखने वाली कहानी पर भरोसा कम होता है.
हालाँकि अपने मक़सद में लेखक कुछ जगहों पर काफ़ी हद तक सफल भी होते हैं.
'एक ही लाठी से सबको मारने' का विमर्श, मीडिया और पब्लिक ट्रायल के दौर में अभियुक्त के हिस्से में आई हुई जलालत और उसके गुनाह की गम्भीरता के बीच में आ चुके असंतुलन की तरफ लेखक सही इशारा भी करते हैं. लेकिन वर्कप्लेस में पावर एब्यूज़ जैसे भयानक और महामारी की तरह फैले हुए यौन उत्पीड़न पर साफ तौर से फिसलते हुए दिखते हैं.
वो ये तो कहते हैं कि क़ानून महज इंसाफ़ तक पहुंचने का ज़रिया है...यह कोई आदर्श नहीं है.
लेकिन औरतों के ख़िलाफ़ एक साल में लगभग सवा तीन लाख के क़रीब होने वाले अपराध का कलंक अपने ललाट पर पोते हुए घूम रहे देश में 'क़ानून के मिसयूज़' जैसे साइड इफ़ेक्ट को दवाई से ज्यादा महत्व देते हुए दिखते हैं.
इसमें कोई शक ही नहीं है कि 'सच' को हरदम सर उठाने का मौक़ा मिलना ही चाहिए. एकतरफ़ा नहीं, दोनों का, वरना जिस तेजी से 'बिलीव' का हैशटैग 'मी टू' जैसे ज़रूरी आंदोलन को चाबी देता है, उतनी ही स्पीड से 'नेवर बिलीव' का हैशटैग भी ट्रेंड कर सकता है.
विश्वास का यह अभाव किसी भी समाज के लिए उसका अंत साबित होगा क्योंकि दुनिया की आधी आबादी हर दिन हो रहे लाखों अपराधों की फाइलिंग करता खाता कभी नहीं भरेगा.
वह हमेशा सर्दी में फैलने वाले स्मॉग की तरह हमारी आँखों में जलेगा. फ़िल्म को स्त्री विमर्श के फलने फ़ूलने के लिए मददगार कहा जा सकता है क्योंकि इसने न सिर्फ दूसरा पक्ष सामने रखने की कोशिश की है बल्कि हमारा ध्यान देश की क्रिमिनल और क़ानून व्यवस्था की ओर भी खींचा है. अपने अपने पक्ष के सच को जिताने के लिए कैसे न्याय कहीं पीछे रह जाता है, फ़िल्म ने इस पर भी बढ़िया नज़रिया अपनाया है.
कहानी से काफ़ी असहमतियों के बावजूद इस फ़िल्म में उठायी गईं कई बातें सोचने लायक हैं. क्या क़ानून समाज को 'न्याय' की ओर ले जाने वाला एक माध्यम है या फिर क़ानून कभी-कभी न्याय के रास्ते में ख़ुद सबसे बड़ा रोड़ा बन खड़ा हो जाता है?
अगर हां तो क्या क़ानूनी रोड़े को उखाड़ कर फेंकना ही एकमात्र उपाय है? या फिर यौन उत्पीड़न की हर नई घटना पर चाट मसाला डाल कर पेश करते ही उस पर ओपिनियन की पिचकारी मारने में थोड़ा संयम बरत कर न्याय पाने के रास्ते को चिकना किया जा सकता है?
ताकि कभी कोई वकील फिर ये न कह सके कि " जिस क़ानून को औरतों की हिफ़ाजत के लिए बनाया गया, उसी क़ानून को हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है".
अंधी राय, अधूरा ज्ञान और थैला भर के जजमेंट्स सच को मैला कर देते हैं. यह प्रकिया न सिर्फ़ किसी एक जेंडर के नुक़सान तक सीमित रहती है बल्कि क़ानून के साथ साथ समाज को भी अपाहिज़ बनाती है.
जल्दी से कुछ कह देने की बेचैनी में दोनों पक्ष अपने कानों से उतने ही साउंड वेव पास होने की इजाज़त देते हैं जितना हमारे प्रीकुक्ड नैरेटिव को लिखने के लिए काफ़ी होता है. लिहाज़ा, 'जब आप लिखते हैं, आप सुनना बंद कर देते हैं.'
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